मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया
मुझ से लिखवाई सराबों की कहानी तुम ने
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मौत को ज़ीस्त तरसती है यहाँ
जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें
बस्तियाँ कैसे न मम्नून हों दीवानों की
फिर बहार आई है फिर जोश में सौदा होगा
कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ
रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ
नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई
क़र्या-ए-वीराँ
मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के
फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है
ध्यान की मौज को फिर आइना-सीमा कर लें