मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के
वो जो इक बात सुनी मेरी ज़बानी तुम ने
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आख़िर दिल की पुरानी लगन कर के ही रहेगी फ़क़ीर हमें
मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया
ध्यान की मौज को फिर आइना-सीमा कर लें
रात की बात
मौत को ज़ीस्त तरसती है यहाँ
कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ
थी तो सही पर आज से पहले ऐसी हक़ीर फ़क़ीर न थी
तिरे जल्वे तेरे हिजाब को मेरी हैरतों से नुमू मिली
फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है
रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ
क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में
शोख़ थे रंग हर इक दौर में अफ़्सानों के