सहर-ए-अज़ल को जो दी गई वही आज तक है मुसाफ़िरी
ऐ तय करें तो पता चले कहाँ कौन किस की तलब में है
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मौत को ज़ीस्त तरसती है यहाँ
मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के
रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ
क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में
कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ
की शब-ए-हश्र मिरी शाम-ए-जवानी तुम ने
फिर बहार आई है फिर जोश में सौदा होगा
जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें
फेरा बहार का तो बरस दो बरस में है
नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई
थी तो सही पर आज से पहले ऐसी हक़ीर फ़क़ीर न थी