जिस ने जी भर के तजल्ली को कभी देखा हो
कोई ऐसा भी तिरी जल्वा-गह-ए-नाज़ में है
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नज़्र-ए-तौबा हम करेंगे मय-परस्ती एक दिन
बज़्म-ए-नशात-ओ-ऐश का सामाँ लिए हुए
जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं
तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं न कर औहाम-हस्ती में
ना वो मसर्रत गुनाह में है न वो कशिश अब सवाब में है
जुनून-ए-इश्क़ की ये फ़ित्ना-सामानी नहीं जाती
कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने
दुनिया वही है और वही सामान-ए-ज़िंदगी
मिरी ज़िंदगी का ये हाल था यही शक्ल-ए-राह-रवी रही
कहाँ सदमा नहीं होते कहाँ मातम नहीं होता
दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है
ग़म न अपना न अब ख़ुशी अपनी