जब से फ़रेब-ए-ज़ीस्त में आने लगा हूँ मैं
ख़ुद अपनी मुश्किलों को बढ़ाने लगा हूँ मैं
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तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं न कर औहाम-हस्ती में
किसी की याद को अपना शिआ'र कर लेंगे
ना वो मसर्रत गुनाह में है न वो कशिश अब सवाब में है
उसी को हम समझ लेते हैं अपना सादगी देखो
जिस ने जी भर के तजल्ली को कभी देखा हो
गुबार-ए-ज़िंदगी में लैला-ए-मक़्सूद क्या मअ'नी
ग़म न अपना न अब ख़ुशी अपनी
कहाँ सदमा नहीं होते कहाँ मातम नहीं होता
दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है
ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो
जो मेरी हालत पे हंस रहे हैं मुझे कुछ उन से गिला नहीं है