गुबार-ए-ज़िंदगी में लैला-ए-मक़्सूद क्या मअ'नी
वो दीवाने हैं जो इस गर्द को महमिल समझते हैं
Wasi Shah
Parveen Shakir
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Javed Akhtar
Gulzar
Rahat Indori
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(366) Peoples Rate This
ग़म न अपना न अब ख़ुशी अपनी
किसी की याद को अपना शिआ'र कर लेंगे
नज़्र-ए-तौबा हम करेंगे मय-परस्ती एक दिन
जुनून-ए-इश्क़ की ये फ़ित्ना-सामानी नहीं जाती
मिरी ज़िंदगी का ये हाल था यही शक्ल-ए-राह-रवी रही
तलाश-ए-सूरत-ए-तस्कीं न कर औहाम-हस्ती में
ना वो मसर्रत गुनाह में है न वो कशिश अब सवाब में है
ग़म-ओ-कर्ब-ओ-अलम से दूर अपनी ज़िंदगी क्यूँ हो
दुनिया वही है और वही सामान-ए-ज़िंदगी
कहाँ रह जाए थक कर रह-नवर्द-ए-ग़म ख़ुदा जाने
दिल-ए-ना-सुबूर को फिर वही बुत-ए-बेवफ़ा की तलाश है