हर इक फ़िक़रे पे है झिड़की तो है हर बात पर गाली
तुम ऐसे ख़ूबसूरत हो के इतने बद-ज़बाँ क्यूँ हो
Habib Jalib
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आँख अपनी तिरी अबरू पे जमी रहती है
चार बोसे तो दिया कीजिए तनख़्वाह मुझे
कुछ ग़रज़ वज्ह मुद्दआ बाइस
दिल तंग उस में रंज-ओ-अलम शोर-ओ-शर हों जम्अ'
न लड़ाओ नज़र रक़ीबों से
होश-ओ-शकेब-ओ-ताब-ओ-सब्र-ओ-क़रार पांचों
फल है उस बुत की आश्नाई का
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
ज़ीनत-ए-उनवाँ है मज़मूँ आलम-ए-तौहीद का
सुब्हा से मतलब न कुछ ज़ुन्नार से
हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर
वस्ल से तब भरे हमारा पेट