आँख अपनी तिरी अबरू पे जमी रहती है
रोज़ इस बैत पे हम साद किया करते हैं
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दिल तंग उस में रंज-ओ-अलम शोर-ओ-शर हों जम्अ'
सर मिला है इश्क़ का सौदा समाने के लिए
हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर
वस्ल से तब भरे हमारा पेट
कहें क्या कि क्या क्या सितम देखते हैं
ईजाद ग़म हुआ दिल-ए-मुज़्तर के वास्ते
फल है उस बुत की आश्नाई का
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
होश-ओ-शकेब-ओ-ताब-ओ-सब्र-ओ-क़रार पांचों
काफ़िर हो फिर जो शरअ' का कुछ भी करे ख़याल
क़श्क़ा नहीं पेशानी पे उस माह-जबीं के
हर इक फ़िक़रे पे है झिड़की तो है हर बात पर गाली