क़श्क़ा नहीं पेशानी पे उस माह-जबीं के
अल्लाह ने ये हुस्न के ख़िर्मन को है चाँका
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जो तेरे गुनह बख़्शेगा वाइ'ज़ वो मिरे भी
आँख अपनी तिरी अबरू पे जमी रहती है
ज़ीनत-ए-उनवाँ है मज़मूँ आलम-ए-तौहीद का
सर मिला है इश्क़ का सौदा समाने के लिए
वस्ल से तब भरे हमारा पेट
चार बोसे तो दिया कीजिए तनख़्वाह मुझे
मलक-उल-मौत मोअज़्ज़िन है मिरा वस्ल की रात
हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर
शायद मिज़ाज हम से मुकद्दर है यार का
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
फल है उस बुत की आश्नाई का