चार बोसे तो दिया कीजिए तनख़्वाह मुझे
एक बोसे पे मिरा ख़ाक गुज़ारा होगा
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वस्ल से तब भरे हमारा पेट
कहें क्या कि क्या क्या सितम देखते हैं
काफ़िर हो फिर जो शरअ' का कुछ भी करे ख़याल
क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव
मलक-उल-मौत मोअज़्ज़िन है मिरा वस्ल की रात
फल है उस बुत की आश्नाई का
सुब्हा से मतलब न कुछ ज़ुन्नार से
हर इक फ़िक़रे पे है झिड़की तो है हर बात पर गाली
कुछ ग़रज़ वज्ह मुद्दआ बाइस
सर मिला है इश्क़ का सौदा समाने के लिए
हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर