शायद मिज़ाज हम से मुकद्दर है यार का
लिक्खा है उस ने हम को ब-ख़्त्त-ए-ग़ुबार ख़त
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क़श्क़ा नहीं पेशानी पे उस माह-जबीं के
ज़ीनत-ए-उनवाँ है मज़मूँ आलम-ए-तौहीद का
वस्ल से तब भरे हमारा पेट
मलक-उल-मौत मोअज़्ज़िन है मिरा वस्ल की रात
ईजाद ग़म हुआ दिल-ए-मुज़्तर के वास्ते
कहें क्या कि क्या क्या सितम देखते हैं
दिल तंग उस में रंज-ओ-अलम शोर-ओ-शर हों जम्अ'
हिदायत शैख़ करते थे बहुत बहर-ए-नमाज़ अक्सर
हुजूम-ए-रंज-ओ-ग़म-ओ-दर्द है मरूँ क्यूँकर
काफ़िर हो फिर जो शरअ' का कुछ भी करे ख़याल
क़ातिल के कूचे में हमा-तन जाऊँ बन के पाँव