सरिश्क-ए-चश्म दिखाते हैं गर्मियाँ अपनी
कमी पे जब अरक़-ए-इंफ़िआ'ल होता है
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न शरमाओ आँखें मिला कर तो देखो
नीम-जाँ हूँ ज़िंदगी दूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
साफ़ क्या हो सोहबत-ए-ज़ाहिर से बातिन का ग़ुबार
हो अगर मद्द-ए-नज़र गुलशन में ऐ गुलफ़ाम रक़्स
दिखा ऐ नाख़ुन-ए-ग़म लुत्फ़-ए-बाहम ऐसे सामाँ पर
अदब बख़्शा है ऐसा रब्त-ए-अल्फ़ाज़-ए-मुनासिब ने
दिल है निसार मर्दुमक-ए-चश्म-ए-दोस्त पर
देखो निगाह-ए-शौक़ से मेरी तरफ़ मुझे
जो हुस्न-ओ-इश्क़ का हम-वज़्न इम्तिहाँ ठहरा
गर तअ'ल्ली पर है वहम-ए-इम्तिहान-ए-मय-फ़रोश