देखो निगाह-ए-शौक़ से मेरी तरफ़ मुझे
ये मुद्दआ' है और कोई मुद्दआ' नहीं
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नीम-जाँ हूँ ज़िंदगी दूद-ए-चराग़-ए-कुश्ता है
मिसरे पे उन के मिस्रा-ए-क़द का गुमाँ हुआ
उस बुत को दिल दिखा के कलेजा दिखा दिया
मुझ को रोते देख कर पास आए वो तफ़्हीम को
साफ़ क्या हो सोहबत-ए-ज़ाहिर से बातिन का ग़ुबार
सरिश्क-ए-चश्म दिखाते हैं गर्मियाँ अपनी
अदब बख़्शा है ऐसा रब्त-ए-अल्फ़ाज़-ए-मुनासिब ने
जो हुस्न-ओ-इश्क़ का हम-वज़्न इम्तिहाँ ठहरा
हट न कर ऐ दुख़्त-ए-रज़ बेताबियाँ बढ़ जाएँगी
गर तअ'ल्ली पर है वहम-ए-इम्तिहान-ए-मय-फ़रोश
वो हवा-ख़्वाह-ए-नसीम-ए-ज़ुल्फ़ हूँ मैं तीरा-बख़्त