तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
यानी ये ख़ैर-मक़्दम-ए-फ़स्ल-ए-बहार था
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मअनी-तराज़-ए-इश्क़ हर इक बादा-ख़्वार था
वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
ज़ब्त से दिल नज़ार रहता है
कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी
देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
बनने लगे हैं दाग़ सितारे ख़ुशा नसीब
फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में