देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
उस ने रक्खा है मिरे दल के बराबर आईना
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गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में
कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
वो शम्अ नहीं हैं कि हों इक रात के मेहमाँ
कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी
तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
मअनी-तराज़-ए-इश्क़ हर इक बादा-ख़्वार था
तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
हाथ रखते ही था हाल-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर आईना
फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा