वो शम्अ नहीं हैं कि हों इक रात के मेहमाँ
जलते हैं तो बुझते नहीं हम वक़्त-ए-सहर भी
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हाथ रखते ही था हाल-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर आईना
सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग
कोई अरमाँ तलाश-ए-दोस्त का क्यूँ दिल में रह जाता
ज़ब्त से दिल नज़ार रहता है
वो निगाह-ए-शर्मगीं हो या किसी का इंकिसार
या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
बनने लगे हैं दाग़ सितारे ख़ुशा नसीब
तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई