वो निगाह-ए-शर्मगीं हो या किसी का इंकिसार
झुक के जो मुझ से मिला वो एक ख़ंजर हो गया
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बनने लगे हैं दाग़ सितारे ख़ुशा नसीब
मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का
देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग
कोई अरमाँ तलाश-ए-दोस्त का क्यूँ दिल में रह जाता
गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में
मअनी-तराज़-ए-इश्क़ हर इक बादा-ख़्वार था
ज़ब्त से दिल नज़ार रहता है
हाथ रखते ही था हाल-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर आईना
वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई
वो शम्अ नहीं हैं कि हों इक रात के मेहमाँ