गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में
जानता हूँ बात करती है कहीं तस्वीर भी
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तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
ज़ब्त से दिल नज़ार रहता है
मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का
बनने लगे हैं दाग़ सितारे ख़ुशा नसीब
वो निगाह-ए-शर्मगीं हो या किसी का इंकिसार
कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं
फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
कोई अरमाँ तलाश-ए-दोस्त का क्यूँ दिल में रह जाता
सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग