ज़ब्त से दिल नज़ार रहता है
अंदरूनी बुख़ार रहता है
यूँ तो दिल को कभी क़रार न था
अब बहुत बे-क़रार रहता है
क़त्अ उम्मीद हो तो सब्र आए
रोज़ इक इंतिज़ार रहता है
माया-ए-ज़िंदगी सुख़न है 'नज़र'
शेर ही यादगार रहता है
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देखना है किस में अच्छी शक्ल आती है नज़र
हाथ रखते ही था हाल-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर आईना
वो तग़ाफ़ुल को इलाज-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
तम्हीद थी जुनूँ की गरेबाँ हुआ जो चाक
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई
फ़ना होने में सोज़-ए-शम'अ की मिन्नत-कशी कैसी
कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी
गुफ़्तुगू की तुम से आदत हो गई है वर्ना में
सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग
कोई मुझ सा मुस्तहिक़्क़-ए-रहम-ओ-ग़म-ख़्वारी नहीं