या दिल है मिरा या तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा है
गुल है कि इक आईना सर-ए-राह पड़ा है
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कारोबार-ए-इश्क़ की कसरत कभी ऐसी न थी
ज़ब्त से दिल नज़ार रहता है
कोई अरमाँ तलाश-ए-दोस्त का क्यूँ दिल में रह जाता
मुजस्सम दाग़-ए-हसरत हूँ सरापा नक़्श-ए-इबरत का
सुनता हूँ कि ख़िर्मन से है बिजली को बहुत लाग
तुम ऐसे बे-ख़बर भी शाज़ होंगे इस ज़माने में
वो निगाह-ए-शर्मगीं हो या किसी का इंकिसार
फ़िक्र-ए-मआल थी न ग़म-ए-रोज़गार था
पस-ए-तौबा हदीस-ए-मुतरिब-ओ-पैमाना कहते हैं
हाथ रखते ही था हाल-ए-क़ल्ब-ए-मुज़्तर आईना
वहशियों को क़ैद से छूटे हुए मुद्दत हुई