शिकस्त खा चुके हैं हम मगर अज़ीज़ फ़ातेहो
हमारे क़द से कम न हो फ़राज़-ए-दार देखना
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सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है
बाब-ए-तिलिस्म-ए-होश-रुबा मिल गया मुझे
पीर-ए-मुग़ाँ को क़िबला-ए-हाजात कह गया
खिलते हैं दिल में फूल तिरी याद के तुफ़ैल
इक मसरफ़-ए-औक़ात-ए-शबीना निकल आया
बसारतों पे भँवर इंकिशाफ़ करता है
सुनाइए वो लतीफ़ा हर एक जाम के साथ
ग़ौग़ा खटपट चीख़म धाड़
सिवाए मेरे किसी को जलने का होश कब था
शाख़ों पर इबहाम के पैकर लटक रहे हैं
पहले हम उस की महफ़िल में जाने से कतराए तो
इस खुरदुरी ग़ज़ल को न यूँ मुँह बना के देख