रोती हुई एक भीड़ मिरे गिर्द खड़ी थी
शायद ये तमाशा मिरे हँसने के लिए था
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खिलते हैं दिल में फूल तिरी याद के तुफ़ैल
शहर भर में कहीं रौनक़ थी न ताबानी थी
सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है
फ़र्क़ नहीं पड़ता हम दीवानों के घर में होने से
आलाम-ए-रोज़गार का मुँह ज़र्द हो गया
सिवाए मेरे किसी को जलने का होश कब था
यूँ पलक पर जगमगाना दो घड़ी का ऐश है
कई सूखे हुए पत्ते हरे मालूम होते हैं
मेरे तीखे शेर की क़ीमत दुखती रग पर कारी चोट
उस तरफ़ वो जो नज़र पड़ता है
शाख़ों पर इबहाम के पैकर लटक रहे हैं
दीवारों पर गीली रेखाएँ रोती हैं