सुनता हूँ कि तुझ को भी ज़माने से गिला है
मुझ को भी ये दुनिया नहीं रास आई इधर आ
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शिकस्त खा चुके हैं हम मगर अज़ीज़ फ़ातेहो
यूँ पलक पर जगमगाना दो घड़ी का ऐश है
अंधे आइने का क़त्ल
बने हुए हैं फ़सील-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
रहता है हर वक़्त क़लक़ में
ये इज़्तिराब देखना ये इंतिशार देखना
क्या करता मैं हम-अस्रों ने तन्हा मुझ पर छोड़ दिया
पाकीज़गी का सोलहवाँ साल
तुम यहाँ दुबके हुए हो
लाइक़-ए-दीद वो नज़ारा था
बचपन में आकाश को छूता सा लगता था
पहले हम उस की महफ़िल में जाने से कतराए तो