बचपन में आकाश को छूता सा लगता था
इस पीपल की शाख़ें अब कितनी नीची हैं
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पाकीज़गी का सोलहवाँ साल
तूफ़ान-ए-बला से जो मैं बच कर गुज़र आया
बोलती पहेली
यूँ तोड़ न मुद्दत की शनासाई इधर आ
शिकस्त खा चुके हैं हम मगर अज़ीज़ फ़ातेहो
क्या करता मैं हम-अस्रों ने तन्हा मुझ पर छोड़ दिया
मेरे तीखे शेर की क़ीमत दुखती रग पर कारी चोट
उस ने मुझ को याद फ़रमाया यक़ीनन
बसारतों पे भँवर इंकिशाफ़ करता है
नए नज़रिये की तख़्लीक़
सूखा बाँझ महीना मौला पानी दे
तुम यहाँ दुबके हुए हो