सिवाए मेरे किसी को जलने का होश कब था
चराग़ की लौ बुलंद थी और रात कम थी
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बसारतों पे भँवर इंकिशाफ़ करता है
अंधे आइने का क़त्ल
फ़र्क़ नहीं पड़ता हम दीवानों के घर में होने से
आलाम-ए-रोज़गार का मुँह ज़र्द हो गया
मौत का दूसरा नाम
तुम यहाँ दुबके हुए हो
सूर-ए-इस्राफ़ील
ये इज़्तिराब देखना ये इंतिशार देखना
आँखों में वीरानी सी है पलकें भीगी बाल खुले
सूखा बाँझ महीना मौला पानी दे
बे-मौसम फूटबाल
पहले हम उस की महफ़िल में जाने से कतराए तो