ऐसी क़िस्मत कहाँ कि जाम आता
बू-ए-मय भी इधर नहीं आई
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आशिक़ों की रूह को ता'लीम-ए-वहदत के लिए
क़ासिद ने ख़बर आमद-ए-दिलबर की उड़ा दी
रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
ये तो समझा मैं ख़ुदा को कि ख़ुदा है लेकिन
उन्हों ने क्या न किया और क्या नहीं करते
अब कौन फिरे कू-ए-बुत-ए-दुश्मन-ए-दीं से
मेरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
जुनूँ के जोश में इंसान रुस्वा हो ही जाता है
फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
निगाहों में फिरती है आठों-पहर
तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा