तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा
तिरे घर मैं रहूँगा मेरे घर तू
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न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
वो क़ज़ा के रंज में जान दें कि नमाज़ जिन की क़ज़ा हुई
दिल क्या करे जो राज़ मोहब्बत का खुल गया
इक पर्दा-नशीं की आरज़ू है
मोहब्बत कर के लाखों रंज झेले बेकली पाई
बुतों में नूर-ए-ज़ात-ए-किब्रिया मालूम होता है
वक़्त-ए-आख़िर याद है साक़ी की मेहमानी मुझे
इस से पहले मैं कभी आबाद घर बस्ती में था
ख़ूब इस दिल पे तिरी आँख ने डोरे डाले
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया
वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं