बुतों में नूर-ए-ज़ात-ए-किब्रिया मालूम होता है
मुझे कुछ दिन से हर पत्थर ख़ुदा मालूम होता है
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इक हम कि हम को सुब्ह से है शाम की ख़ुशी
वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं
इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
किसी के तीर को छाती से हम लगाए रहे
इकट्ठे कर के तेरी दूसरी तस्वीर खींचूँगा
सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे
अपनी महफ़िल में रक़ीबों को बुलाया उस ने
आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में
दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया
वो क़ुदरत के नमूने क्या हुए जो उस में पहले थे
यही सूरत वहाँ थी बे-ज़रूरत बुत-कदा छोड़ा