बुत-ख़ाने में क्या याद-ए-इलाही नहीं मुमकिन
नाक़ूस से क्या कार-ए-अज़ाँ हो नहीं सकता
Allama Iqbal
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फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
जिए जाते हैं पस्ती में तिरे सारे जहाँ वाले
मोहब्बत में किसी ने सर पटकने का सबब पूछा
इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
मेरा दिल-ए-'मुज़्तर' बुत-ए-काफ़िर से लगा है
हाल ज़ाहिद जो मय-ए-नाब का पूछे तो कहूँ
मेरा रंग रूप बिगड़ गया मिरा यार मुझ से बिछड़ गया
किसी का जल्वा-ए-रंगीं ये कहता है इन्हें पूजो
जनाब-ए-ख़िज़्र राह-ए-इश्क़ में लड़ने से क्या हासिल