किसी का जल्वा-ए-रंगीं ये कहता है इन्हें पूजो
ये उस पत्थर के बुत हैं जिस पे पिस्ती थी हिना मेरी
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कोई अच्छा नज़र आ जाए तो इक बात भी है
वफ़ा क्या कर नहीं सकते हैं वो लेकिन नहीं करते
अहबाब-ओ-अक़ारिब के बरताव कोई देखे
ख़ुदा भी जब न हो मालूम तब जानो मिटी हस्ती
साक़ी वो ख़ास तौर की ता'लीम दे मुझे
जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
उन को आती थी नींद और मुझ को
जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे
हम ने पाई लज़्ज़त-ए-दीदार लेकिन दूर से
कोई ले ले तो दिल देने को मैं तय्यार बैठा हूँ
चाहत की तमन्ना से कोई आँच न आई
ज़ाहिद तो बख़्शे जाएँ गुनहगार मुँह तकें