ख़ुदा भी जब न हो मालूम तब जानो मिटी हस्ती
फ़ना का क्या मज़ा जब तक ख़ुदा मालूम होता है
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उन को आती थी नींद और मुझ को
तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल
वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं
ज़बाँ क़ासिद की 'मुज़्तर' काट ली जब उन को ख़त भेजा
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
मेरी हस्ती से तो अच्छी हैं हवाएँ यारब
नज़र के सामने का'बा भी है कलीसा भी
ऐ ख़ुदा दुनिया पे अब क़ब्ज़ा बुतों का चाहिए
पहले हम में थे और अब हम से जुदा रहते हैं
तेरी उलझी हुई बातों से मिरा दिल उलझा