नज़र के सामने का'बा भी है कलीसा भी
यही तो वक़्त है तक़दीर आज़माने का
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साक़ी मिरा खिंचा था तो मैं ने मना लिया
तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा
आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में
लड़ाई है तो अच्छा रात-भर यूँ ही बसर कर लो
ख़ुदा भी जब न हो मालूम तब जानो मिटी हस्ती
मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा'लूम होती है
तुम क्यूँ शब-ए-जुदाई पर्दे में छुप गए हो
मैं तिरी राह-ए-तलब में ब-तमन्ना-ए-विसाल
सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है
आह-ए-रसा ख़ुदा के लिए देख-भाल के
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है
यूँ कहीं डूब के मर जाऊँ तो अच्छा है मगर