पहले हम में थे और अब हम से जुदा रहते हैं
आप काहे को ग़रीबों से ख़फ़ा रहते हैं
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ज़ुल्फ़ का हाल तक कभी न सुना
अब इस से बढ़ के क्या नाकामियाँ होंगी मुक़द्दर में
वक़्त आराम का नहीं मिलता
पड़ा हूँ इस तरह उस दर पे 'मुज़्तर'
तेरी उलझी हुई बातों से मिरा दिल उलझा
दिल को मैं अपने पास क्यूँ रक्खूँ
तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा
बिछड़ना भी तुम्हारा जीते-जी की मौत है गोया
ऐ बुतो रंज के साथी हो न आराम के तुम
तुम्हारी जल्वा-गाह-ए-नाज़ में अंधेर ही कब था
उन का इक पतला सा ख़ंजर उन का इक नाज़ुक सा हाथ
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है