बिछड़ना भी तुम्हारा जीते-जी की मौत है गोया
उसे क्या ख़ाक लुत्फ़-ए-ज़िंदगी जिस से जुदा तुम हो
Ahmad Faraz
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तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
मोहब्बत बा'इस-ए-ना-मेहरबानी होती जाती है
मैं नहीं हूँ नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
जो पूछा दिल हमारा क्यूँ लिया तो नाज़ से बोले
नमक-पाश ज़ख़्म-ए-जिगर अब तो आ जा
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है
उन को आती थी नींद और मुझ को
मसीहा जा रहा है दौड़ कर आवाज़ दो 'मुज़्तर'
यहाँ से जब गई थी तब असर पर ख़ार खाए थी
तेरी रंगत बहार से निकली
अहबाब-ओ-अक़ारिब के बरताव कोई देखे
दिल क्या करे जो राज़ मोहब्बत का खुल गया