मसीहा जा रहा है दौड़ कर आवाज़ दो 'मुज़्तर'
कि दिल को देखता जा जिस में छाले पड़ते जाते हैं
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मोहब्बत बा'इस-ए-ना-मेहरबानी होती जाती है
हमारे एक दिल को उन की दो ज़ुल्फ़ों ने घेरा है
क़यामत में बड़ी गर्मी पड़ेगी हज़रत-ए-ज़ाहिद
साक़ी ने लगी दिल की इस तरह बुझा दी थी
काबे में हम ने जा के कुछ और हाल देखा
एक हम हैं कि जहाँ जाएँ बुरे कहलाएँ
जुदाई मुझ को मारे डालती है
क़ैस ने पर्दा-ए-महमिल को जो देखा तो कहा
उन को आती थी नींद और मुझ को
इस से पहले मैं कभी आबाद घर बस्ती में था
तेरी उलझी हुई बातों से मिरा दिल उलझा
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया