मेरा दिल-ए-'मुज़्तर' बुत-ए-काफ़िर से लगा है
और आँख मिरी सू-ए-ख़ुदा देख रही है
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हम वफ़ा करते हैं हम पर जौर कोई क्यूँ करे
उस से कह दो कि वो जफ़ा न करे
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
ख़िदमत-ए-गश्त बगूलों को तो दी सहरा में
मैं मसीहा उसे समझता हूँ
गए हम दैर से काबे मगर ये कह के फिर आए
तमन्ना इक तरह की जान है जो मरते दम निकले
जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम
ये तो मुमकिन नहीं मोहब्बत में
अब इस से बढ़ के क्या नाकामियाँ होंगी मुक़द्दर में
दूर क्यूँ जाऊँ यहीं जल्वा-नुमा बैठा है
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की