तमन्ना इक तरह की जान है जो मरते दम निकले
जुदाई इक तरह की मौत है जो जीते-जी आए
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रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
बुरा हूँ मैं जो किसी की बुराइयों में नहीं
इस से पहले मैं कभी आबाद घर बस्ती में था
वक़्त-ए-आख़िर याद है साक़ी की मेहमानी मुझे
क़ासिद ने ख़बर आमद-ए-दिलबर की उड़ा दी
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
उठे उठ कर चले चल कर थमे थम कर कहा होगा
इसी को पी के होती है शिफ़ा बीमार-ए-उल्फ़त को
तुम्हारी जल्वा-गाह-ए-नाज़ में अंधेर ही कब था
अपने दिल को तिरी आँखों पे फ़िदा करता हूँ
अब कौन फिरे कू-ए-बुत-ए-दुश्मन-ए-दीं से
अदू को छोड़ दो फिर जान भी माँगो तो हाज़िर है