क़ासिद ने ख़बर आमद-ए-दिलबर की उड़ा दी
आया भी तो कम-बख़्त ने बे-पर की उड़ा दी
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कूचा-ए-यार से यारब न उठाना हम को
वो मज़ाक़-ए-इश्क़ ही क्या कि जो एक ही तरफ़ हो
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
मेरे ग़ुबार की ये तअ'ल्ली तो देखिए
वो गले से लिपट के सोते हैं
उठते जोबन पे खिल पड़े गेसू
दिल का मोआ'मला जो सुपुर्द-ए-नज़र हुआ
सदमा बुत-ए-काफ़िर की मोहब्बत का न पूछो
दिल काम का नहीं तो न लो जान नज़्र है
कोई ले ले तो दिल देने को मैं तय्यार बैठा हूँ
इकट्ठे कर के तेरी दूसरी तस्वीर खींचूँगा
निगाहों में फिरती है आठों-पहर