निगाहों में फिरती है आठों-पहर
क़यामत भी ज़ालिम का क़द हो गई
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दिल-दादगान-ए-हुस्न से पर्दा न चाहिए
क्या कहूँ हसरत-ए-दीदार ने क्या क्या खींचा
दम निकल जाएगा रुख़्सत का अभी नाम न लो
न रो इतना पराए वास्ते ऐ दीदा-ए-गिर्यां
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
हम से अच्छा नहीं मिलने का अगर तुम चाहो
मसीहा जा रहा है दौड़ कर आवाज़ दो 'मुज़्तर'
तुम्हें चाहूँ तुम्हारे चाहने वालों को भी चाहूँ
वक़्त-ए-आख़िर याद है साक़ी की मेहमानी मुझे
अहबाब-ओ-अक़ारिब के बरताव कोई देखे
फ़ना के बा'द इस दुनिया में कुछ बाक़ी नहीं रहता
सुब्ह तक कौन जियेगा शब-ए-तन्हाई में