पड़ गए ज़ुल्फ़ों के फंदे और भी
अब तो ये उलझन है चंदे और भी
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इश्क़ का काँटा हमारे दिल में ये कह कर चुभा
वक़्त दो मुझ पर कठिन गुज़रे हैं सारी उम्र में
निगाह-ए-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया
वो क़ुदरत के नमूने क्या हुए जो उस में पहले थे
रूह देती रही तर्ग़ीब-ए-तअ'ल्ली बरसों
मोहब्बत का असर फिर देखना मरने तो दो मुझ को
आँखें न चुराओ दिल में रह कर
आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में
वो मज़ाक़-ए-इश्क़ ही क्या कि जो एक ही तरफ़ हो
सुब्ह तक कौन जियेगा शब-ए-तन्हाई में
नहीं हूँ मैं तो तिरी बंदगी के क्या मा'नी