वो मज़ाक़-ए-इश्क़ ही क्या कि जो एक ही तरफ़ हो
मिरी जाँ मज़ा तो जब है कि तुझे भी कल न आए
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सब शरीक-ए-सदमा-ओ-आज़ार कुछ यूँही से हैं
किसी बुत की अदा ने मार डाला
सदमा बुत-ए-काफ़िर की मोहब्बत का न पूछो
मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा'लूम होती है
मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
धोके से बुला कर जो मिला था तो वो मुझ से
इन बुतों की ही मोहब्बत से ख़ुदा मिलता है
दम-ए-ख़्वाब-ए-राहत बुलाया उन्हों ने तो दर्द-ए-निहाँ की कहानी कहूँगा
उस का भी एक वक़्त है आने दो मौत को
सूरत तो एक ही थी दो घर हुए तो क्या है
इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुम से मसीहा हो नहीं सकता