धोके से बुला कर जो मिला था तो वो मुझ से
जब मिलते हैं कहते हैं दग़ाबाज़ कहीं का
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जान देना नहीं किसे मंज़ूर
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
अब कौन फिरे कू-ए-बुत-ए-दुश्मन-ए-दीं से
बाज़ू पे रख के सर जो वो कल रात सो गया
उठते जोबन पे खिल पड़े गेसू
निछावर बुत-कदे पर दिल करूँ का'बा तो कोसों है
जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम
मिरे उन के तअ'ल्लुक़ पर कोई अब कुछ नहीं कहता
उन को आती थी नींद और मुझ को
तुम अगर चाहो तो मिट्टी से अभी पैदा हों फूल
किसी के कम हैं किसी के बहुत मगर ज़ाहिद
अगर तुम दिल हमारा ले के पछताए तो रहने दो