उठते जोबन पे खिल पड़े गेसू
आ के जोगी बसे पहाड़ों में
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क़िबला बन जाए जहाँ तू कोई पत्थर रख दे
मोहब्बत क़द्र-दाँ होती तो फिर काहे का रोना था
सुनोगे हाल जो मेरा तो दाद क्या दोगे
सदमा बुत-ए-काफ़िर की मोहब्बत का न पूछो
निगाह-ए-यार मिल जाती तो हम शागिर्द हो जाते
तसव्वुर में तिरा दर अपने सर तक खींच लेता हूँ
कह दो साक़ी से कि प्यासा न निकाले मुझ को
असीर-ए-पंजा-ए-अहद-ए-शबाब कर के मुझे
आरज़ू दिल में बनाए हुए घर है भी तो क्या
जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे
मिरा रोना हँसी-ठट्ठा नहीं है
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है