मोहब्बत क़द्र-दाँ होती तो फिर काहे का रोना था
हमें भी तुम समझते तुम को जैसा हम समझते हैं
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तेरे मूए-ए-मिज़ा खटकते हैं
वो क़ुदरत के नमूने क्या हुए जो उस में पहले थे
चूकी नज़र जो ज़ाहिद-ए-ख़ाना-ख़राब की
तरीक़ याद है पहले से दिल लगाने का
लड़ाई है तो अच्छा रात-भर यूँ ही बसर कर लो
तमन्ना इक तरह की जान है जो मरते दम निकले
उस का भी एक वक़्त है आने दो मौत को
क़ैस ने पर्दा-ए-महमिल को जो देखा तो कहा
वो क़ज़ा के रंज में जान दें कि नमाज़ जिन की क़ज़ा हुई
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
ये तुम बे-वक़्त कैसे आज आ निकले सबब क्या है
अब इस से बढ़ के क्या नाकामियाँ होंगी मुक़द्दर में