तेरे मूए-ए-मिज़ा खटकते हैं
दिल के छालों में नोक-ए-ख़ार कहाँ
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फ़स्ल-ए-गुल भी तरस के काटी है
हम से अच्छा नहीं मिलने का अगर तुम चाहो
दिल उन को मुफ़्त देने में दुश्मन को रश्क क्यूँ
दुआ से कुछ न हुआ इल्तिजा से कुछ न हुआ
आतिश-ए-हुस्न से इक आब है रुख़्सारों में
रंज-ए-ग़ुर्बत में देख कर मुझ को
हमारे एक दिल को उन की दो ज़ुल्फ़ों ने घेरा है
क़िबला बन जाए जहाँ तू कोई पत्थर रख दे
रूह देती रही तर्ग़ीब-ए-तअ'ल्ली बरसों
ख़ूब इस दिल पे तिरी आँख ने डोरे डाले
जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा
इक नक़्श-ए-ख़याल रू-ब-रू है