तसव्वुर में तिरा दर अपने सर तक खींच लेता हूँ
सितमगर मैं नहीं चलता तिरी दीवार चलती है
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नज़र के सामने का'बा भी है कलीसा भी
किसी का जल्वा-ए-रंगीं ये कहता है इन्हें पूजो
तेरे मूए-ए-मिज़ा खटकते हैं
मुसीबत और लम्बी ज़िंदगानी
वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं
दुआ से कुछ न हुआ इल्तिजा से कुछ न हुआ
आह-ए-रसा ख़ुदा के लिए देख-भाल के
मेरे अरमाँ वो सुधारे यूँ के यूंहीं रह गए
हम वफ़ा करते हैं हम पर जौर कोई क्यूँ करे
ख़ाल-ओ-आरिज़ का तसव्वुर है हमारे दिल में
नहीं मंज़ूर जब मिलना तो वा'दे की ज़रूरत क्या
इस बात का मलाल नहीं है कि दिल गया