वो शायद हम से अब तर्क-ए-तअल्लुक़ करने वाले हैं
हमारे दिल पे कुछ अफ़्सुर्दगी सी छाई जाती है
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ख़्वाहिश-ए-दीद पे इंकार से आते हैं मज़े
किसी के तीर को छाती से हम लगाए रहे
लुत्फ़-ए-क़ुर्बत है मय-परस्ती में
न उस के दामन से मैं ही उलझा न मेरे दामन से ये ही अटकी
हसरतों को कोई कहाँ रक्खे
बैठे हुए हैं हम ख़ुद आँखों में धूल डाले
मिरा रोना हँसी-ठट्ठा नहीं है
तेरी उलझी हुई बातों से मिरा दिल उलझा
दम निकल जाएगा रुख़्सत का अभी नाम न लो
कैसे दिल लगता हरम में दौर-ए-पैमाना न था
ऐश के रंग मलालों से दबे जाते हैं
फूंके देता है किसी का सोज़-ए-पिन्हानी मुझे