लुत्फ़-ए-क़ुर्बत है मय-परस्ती में
मैं ख़ुदा देखता हूँ मस्ती में
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Jaun Eliya
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न उस के दामन से मैं ही उलझा न मेरे दामन से ये ही अटकी
दुआ से कुछ न हुआ इल्तिजा से कुछ न हुआ
रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
मोहब्बत बुत-कदे में चल के उस का फ़ैसला कर दे
मोहब्बत बा'इस-ए-ना-मेहरबानी होती जाती है
बैठे हुए हैं हम ख़ुद आँखों में धूल डाले
उन्हीं लोगों की बदौलत ये हसीं अच्छे हैं
दिल क्या करे जो राज़ मोहब्बत का खुल गया
जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे
धोके से बुला कर जो मिला था तो वो मुझ से
नज़र के सामने का'बा भी है कलीसा भी
जुनूँ के जोश में इंसान रुस्वा हो ही जाता है