मदहोश ही रहा मैं जहान-ए-ख़राब में
गूंधी गई थी क्या मिरी मिट्टी शराब में
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ख़्वाहिश-ए-दीद पे इंकार से आते हैं मज़े
ग़ुरूर-ए-उल्फ़त की तर्ज़-ए-नाज़िश अजब करिश्मे दिखा रही है
अगर तक़दीर सीधी है तो ख़ुद हो जाओगे सीधे
किसी का जल्वा-ए-रंगीं ये कहता है इन्हें पूजो
साक़ी वो ख़ास तौर की ता'लीम दे मुझे
किसी के तीर को छाती से हम लगाए रहे
तसव्वुर ख़ाना-आबादी करेगा
नज़र के सामने का'बा भी है कलीसा भी
तुम क्यूँ शब-ए-जुदाई पर्दे में छुप गए हो
हमारे मय-कदे में ख़ैर से हर चीज़ रहती है
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ