मैं मसीहा उसे समझता हूँ
जो मिरे दर्द की दवा न करे
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आरज़ू दिल में बनाए हुए घर है भी तो क्या
किसी के कम हैं किसी के बहुत मगर ज़ाहिद
ऐसी क़िस्मत कहाँ कि जाम आता
इक नक़्श-ए-ख़याल रू-ब-रू है
आइना देख कर ग़ुरूर फ़ुज़ूल
गवाह-ए-वस्ल-ए-अदू सर झुका के देख न लो
धोके से बुला कर जो मिला था तो वो मुझ से
वो मज़ाक़-ए-इश्क़ ही क्या कि जो एक ही तरफ़ हो
वक़्त-ए-आख़िर क़ज़ा से बिगड़ेगी
ख़ूब इस दिल पे तिरी आँख ने डोरे डाले
मेरे ग़ुबार की ये तअ'ल्ली तो देखिए
तरीक़ याद है पहले से दिल लगाने का